नमस्कार दोस्तों, स्वागत है आप सभी का एक नयी पोस्ट में; इस पोस्ट में नवयुवक व अन्य लोगों के लिए कुछ अच्छी बातें और धार्मिक कथाएं दी गयी हैं। आपसे अनुरोध है कि बच्चों व युवाओं के यह लेख अवश्य पढ़ाएं।
प्रार्थना भीतर से होनी चाहिए
आपने यह अनुभव किया होगा कि जब हम पूजा या ध्यान करने बैठते हैं तब मन में ज्यादा विचार उठते हैं। पूजा करते समय बाज़ार का खयाल आता है और अगर हम जबरदस्ती पूजा या ध्यान कर भी लें तो इसका कोई मूल्य नहीं रहता। हमारे भीतर उस समय क्या चल रहा है, वह मूल्य रखता है। हम पत्थर की मूर्ति की तरह बैठ भी जाएं, शरीर को साथ भी लें लेकिन जब तक मन न सधे बात नहीं बनती। वह तो तब और जोर से चलता हैं क्योंकि जब शरीर काम में लगा था तब शक्ति बंटी हुई थी। जब हमने शरीर को साध कर बिलकुल निष्क्रिय कर लिया तब सारी शक्ति मन को मिल गई, अब मन में और जोर से विचार उठेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि पूजा, प्रार्थना या ध्यान करते समय मन को साधना बहुत ज़रूरी होता है। प्रार्थना तभी पूर्ण रूप से घटित होती है जब बाह्य के साथ-साथ आन्तरिक स्तर पर भी यह घटित हो।

एक बार गुरुदेव नानकजी महाराज एक मुसलमान नवाब के घर मेहमान हुए। अब नानक के लिए क्या हिन्दु क्या मुसलमान ! क्योंकि जो ज्ञानी होता है उसके लिए कोई संप्रदाय की सीमा नहीं होती। उस नवाब ने नानक से कहा कि अगर तुम्हारे यह कहने में सच्चाई है कि न कोई हिन्दु न कोई मुसलमान, तो आज शुक्रवार का दिन है, हमारे साथ नमाज़ पढ़ने चलो। नानक राजी हो गए। पर उन्होंने कहा- अगर तुम पढ़ोंगे तो हम भी पढ़ेंगे। नवाब होला- यह क्या बात हुई। हम तो नमाज़ पढ़ने ही जा रहे हैं।
नानक नवाब के साथ मस्ज़िद गये। नमाज़ पढ़ी गई। नवाब ने देखा कि नानक न तो झुके, न नमाज़ पढ़ी। बस, खड़े रहे। उसने जल्दी-जल्दी नमाज़ पूरी की क्योंकि क्रोध में कहीं नमाज़ हो सकती है ! जैसे तैसे नमाज़ निपटा कर वह नानक पर बरस पड़ा और बोला-तुम कैसे साधु हो, कैसे सन्त हो! तुमने तो वचन दिया था नमाज़ पढ़ने का और तुम चुपचाप खड़े रहे। नानक बोले- वचन तो दिया था पर, साथ में यह भी कहा था कि अगर आप नमाज़ पढ़ेंगे तो ही मैं पढूंगा । जब आपने नहीं पढ़ी तो मैं कैसे पढ़ता ? नवाब बोला- यह क्या कह रहे हो ? होश में हो ? यहां इतने लोग गवाह हैं कि मैंने नमाज़ पढ़ी। नानक बोले- इनकी गवाही को मैं नहीं मानता क्योंकि मैं देख रहा था कि आपके भीतर क्या चल रहा है। आप तो काबुल में धोड़े खरीद रहे थे। नवाब थोड़ा हैरान हुआ क्योंकि घोड़े तो वह खरीद रहा था। उसी दिन सुबह उसका सबसे अच्छा घोड़ा मर गया था और वह उसकी पीड़ा से भरा हुआ था। यही सोच रहा था कि कैसे काबुल जाऊ, कैसे बढ़िया घोड़ा खरीदूं। नमाज़ क्या खाक पढ़ रहा था।
नानक फिर बोले- तुम्हारा यह मौलवी भी नमाज़ पढ़ रहा होता तो मैं पढ़ लेता। यह तो अपने खेत में फसल काट रहा था। मौलवी भी हैरान हो गया क्योंकि उसके खेत में फसल पक गई थी और नमाज़ के दौरान फसल की चिन्ता उसके मन
पर सवार थी । नानक बोले- अब तुम बोलो, तुमने नमाज पढ़ी जो मैं तुम्हारा साथ देता।
जीवन का आरम्भ अच्छे ढंग से होना चाहिए
किसी भी चीज़ की शुरुआत अगर अच्छी हो जाए तो समझ लें कि आधी फ़तह तो हो गई। जीवन की शुरुआत अगर अच्छे ढंग से हो जाए तो समझ लें कि आधा मैदान मार लिया। यदि में जीवन की शुरुआत का समय श्रमपूर्वक, असुविधाओं को झेलते हुए और कठोर अनुशासन गुज़ारा जाए तो बाद का जीवन सुखपूर्ण रहेगा। लेकिन अगर यह शुरुआत यानी किशोर और नवयुवा-काल मौज मस्ती में, दायित्व और कर्तव्य परायणता की अवहेलना करके सुखपूर्वक गुज़ारा तो यह शुरुआत अच्छी नहीं होगी क्योंकि इससे हमारा शेष जीवन कष्टमय तथा विषाद व असुविधा से ग्रस्त हो जाएगा।
कैसे, इसे जरा समझ लें। यह बहुत ही सामान्य सी बात है कि यदि हम पहले कष्ट भोग कर फिर सुख का अनुभव करें तो सुख ज्यादा मालूम पड़ेगा, इसी प्रकार पहले सुख भोग कर फिर कष्ट भोगें तो कष्ट ज्यादा मालूम पड़ेगा। नीति में कहा है- रात के पहले प्रहर में जागकर, शेषरात गहरी नींद सोना सुखद होता है और पहले प्रहर सो कर गुजारें तो शेष रात कष्टमय हो जाएगी। पहले पैदल चलना पड़े, फिर सवारी मिल जाए तो सुखद होता है लेकिन बाद में पैदल चलना पड़े तो दुःखद होता है। पहले श्रम करके काम निपटा कर आराम करना सुखद होता है पर पहले आलस्य में पड़े रह कर बाद में काम
निपटाना दुःखद होता है। इसी प्रकार जीवन का पहला भाग यानी आरम्भ चूंकि शक्तिशाली शरीर वाला होता है अतः यह समय अपने शरीर तथा व्यक्तित्व के उचित विकास के लिए आवश्यक प्रयत्न करने का है।

यह समय भले ही कष्ट में गुज़रे पर बाद के जीवन में आराम मिलना सुखद होता है और यह समय यदि मौज मस्ती में गुज़रे तथा शेष जीवन कष्ट और संघर्षों में गुज़रे तो दुःखद होता है। सच बात यह है कि जीवन का पहला भाग श्रम, संघर्ष और तप करके गुज़ारने के बाद जो भी मिलेगा वह पहले की अपेक्षा सुखद ही लगेगा। श्रम करने वाले को ऐसी भूख लगती है कि उसे सूखे टुकड़े भी अच्छे लगते हैं फिर अगर स्वादिष्ट भोजन मिल जाए तो क्या कहने ! श्रम से थका हुआ टूटी खटिया पर भी सो जाता है फिर अगर आरामदायक बिस्तर मिल जाए तो क्या कहने! वह कहावत है न कि क्या भूख को बासन, क्या नींद को आसन/नई पीढ़ी के बच्चों को इस मुद्दे पर ध्यान देना चाहिए, इसके महत्व और दूरगामी परिणामों को जान समझ लेना चाहिए। ताकि उनका भावी जीवन सुखपूर्ण निश्चित हो। हमारी नव युवक-युवतियों को यह सलाह है कि इस मुद्दे पर न सिर्फ़ विचार करें बल्कि अपने जीवन के भले के लिए (in ther own interest) इस सलाह पर अमल भी करें।
तप और श्रम करने का काल
हमारे ऋषि-मनीषी बड़े दूरदर्शी, जीवन के यथार्थों को जानने-समझने वाले और मनोविज्ञान के धुरंदर ज्ञाता थे। उन्होंने मनुष्य के जीवन को चार भागों में विभाजित किया और इन भागों को ‘आश्रम’ नाम दिया। आश्रम जीवन की चार अवस्थाएं हैं। जीवन का पहला यानी 25 वर्ष का समय उन्होंने कठोर श्रम, शक्ति और ज्ञान संचय करने के लिए रखा और इसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहा। यह समय भावी जीवन में काम आने वाली चीजों को प्राप्त करने और संचित करने का होता है, न कि खोने और फ़िजूल खर्च करने का। समय के बदलाव से जो फ़र्क पड़ा है, उसके प्रभाव से यह व्यवस्था भंग हो गई है, जिसके बुरे और दुःखद परिणाम व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर सभी को भोगने पड़ रहे हैं। आश्रम व्यवस्था के लुप्त हो जाने से चारों आश्रम की आयु वाले कर्तव्यच्युत, लापरवाह, सुविधाभोगी और मनमाना आचरण करने वाले हो गये हैं। यही वजह है कि शान्ति, व्यवस्था, नैतिकता, अनुशासन और कर्तव्यपरायणता जैसे मानवीय गुण लुप्त होते जा रहे हैं।
जीवन के पहले 25 वर्ष, ब्रह्मचर्य आश्रम के नियमों का पालन करते हुए गुज़ारने वाले को, जो कुछ भी रूखा सूखा मिलता था, वह भी सुखद लगता था। आज आहार-द्रव्यों में एक से बढ़कर एक और विविध प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन उपलब्ध हैं, पर खाने वाले की पाचनशक्ति ठीक नहीं है या वह इन्हें खाने की कला भूल गया है और पचाने की क्षमता खो चुका है। ऐसा इसलिए हुआ कि आज के बच्चे श्रम और तप करने से मुंह चुराते हैं क्योंकि वातावरण और साथ-संगति के प्रभाव से वे बचपन से ही सुविधा भोगी प्रवृत्ति धारण कर लेते हैं तो नियम-संयम का पालन करने में उन्हें ज़रा भी रुचि नहीं रहती।
जो सुख-सुविधाएं उनके बाप-दादाओं ने सपने में भी नहीं देखी थीं उनको वे मुफ्त में मिल रही हैं। घर में नहीं तो बाहर मिल रही हैं और बिना श्रम किये मिल रही हैं। इनका आदी हो जाने पर जब उन्हें ‘नून, तेल, लकड़ी’ की समस्याओं से जूझना पड़ता है तब उन्हें आटे-दाल के भाव का पता चलता है और सारी शोखी हवा हो जाती है। तब वे डिप्रेस्ड होते
हैं, नर्वस होते हैं या विद्रोही और उच्छ-खल हो जाते हैं। आज देश में ऐसे ही युवाओं की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है जो बिना नाम पता लिखे लिफाफे की तरह इधर उधर भटक रहे हैं क्योंकि उन्होंने समय रहते इस विषय में न कुछ सोचा और न आवश्यक तैयारियां ही कीं। जब गहरी और मज़बूत नींव तैयार करने का वक्त था तब तो वे हवाई क़िला बनाने में उलझे रहे, फिल्मों और टीवी सीरियलों के काल्पनिक कथानकों से प्रेरित और प्रोत्साहित हो कर सुहाने सपने देखते रहे और अब जब दुनिया की कठोर सच्चाइयों से वास्ता पड़ा तो धक्के छूट रहे हैं, ठण्डा पसीना आ रहा है और समझ नहीं पा रहे हैं कि अब करें तो क्या करें !