नमस्कार दोस्तों, इस पोस्ट में मैंने कुछ पवित्र साहित्यों की मदद से कुछ संस्कृत श्लोक व मंत्र उनके हिंदी अर्थ के साथ लिखें हैं, उम्मीद है कि आपको अच्छे लगेंगे।
संस्कृत श्लोक के साथ हिंदी सुविचार
उदगादयमादित्यो विश्वेन सहसा सह ।
ऋग्वेद
द्विषन्तं मह्यं रन्धयन्मो अहं द्विषते रघम् ॥
सब मनुष्यों के लिए उचित है कि अनन्त बलयुक्त परमेश्वर से प्रेरित हो कर जैसे सूर्य उदित हो कर तेज को प्राप्त होता है, वैसे ही सब मनुष्य बल को प्राप्त हो कर विकास करें, न किसी से द्वेष करें और न ही किसी को मारें।
शतं वो अम्ब धामानि सहस्रमुत वो रुहः ।
यजुर्वेद
अधा शतक्रत्वो यूयमिमं मे अ गदं कृत ॥
मनुष्यों को चाहिए कि वे उचित आहार-विहार का पालन करते हुए गुणकारी औषधियों का सेवन कर रोगों को दूर करें और शरीर को निरोग और बलवान रखें, क्योंकि चारों पुरुषार्थ का विधिवत पालन करने के लिए शरीर का स्वस्थ और निरोग होना अत्यावश्यक है।
अग्र आ याहि वीतये गृणानो हव्य दातये ।
सामवेद
नि होता सत्सि बर्हिषि ॥
हे प्रकाश स्वरूप परमात्मन्! आप ऐश्वर्यों के दाता हैं, हम आपकी स्तुति करते हैं। हमारे हृदय-मन्दिर को आप अपनी ज्ञान ज्योति से आलोकित करने के लिए हमारे हृदय-मन्दिर में सदैव विराजमान रहने की कृपा कीजिए।

या निशा सर्वभूतानां तस्या जागर्ति संयमी।
श्रीमद् भगवद् गीता
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।।
जो सब जीवों के लिए रात्रि है, वह आत्म-संयमी के जगने का समय है, और जो समस्त जीवों के जगने का समय है, वह समय आत्म-निरीक्षक मुनि के लिए रात है।
तिलेषु तैलं दधि नीव सर्पिरापः स्रोत: स्वरणीषु
चाग्निः।एवमात्मात्मनि गृह्यतेऽसौ सत्ये नैनं तपसा योऽनुपश्यति ॥
-श्वेताश्वतर उपनिषद
जैसे तिलों में तैल, दही में घी, स्रोतों में जल, अरणियों में अग्नि रहती है और तिलों की पीड़ने से, दही को बिलौने से, स्रोतों को खोदने से, अरणियों को रगड़ने से ये प्रकट होते हैं वैसे ही जीवात्मा में परमात्मा निहित है और वहीं उसका ग्रहण होता है परन्तु वह सत्य और तप की रगड़ लगने से प्रकट होता है और तभी दिखाई देता है।
जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पबड्ढई।
-समणसुत्तं
दोमासकयं कज्जं कोडीए वि न निद्वियं ॥
जैसे जैसे लाभ होता है, वैसे वैसे लोभ होता है। लाभ से लोभ बढ़ता जाता है। दो माशा सोने से पूरा होने वाला कार्य करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओं से भी (लोभ के कारण) पूरा नहीं होता।
निवृत्ता भोगेच्छा पुरुष बहुमाने विगलितः
समानाः स्वर्याताः सपदि सुहृदो जीवितसमाः ।
शनैर्यष्ट्र योत्थानं धनतिमिररुर्द्धे च नयने
अहो धृष्टः कायस्तदपि मरणापाय चकितः ॥
बुढ़ापे के कारण भोगने की इच्छा न रही, मान-सम्मान भी पहले जैसा नहीं रहा, हमारे बराबर की उम्र वाले चल बसे, जो घनिष्ठ मित्र जिन्दा हैं, वे अकर्मण्य और हम जैसे ही हो गये हैं, बिना लकड़ी पकड़े उठ नहीं सकते, दिखाई कम देने लगा है फिर भी हमारी काया, कैसी बेहया है कि मौत की बात सुन कर चौंक उठती है।
परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् ।
हितोपदेश
वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥
पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाले और सामने मीठी बात बोलने वाले को इस तरह से त्याग देना चाहिए जैसे नीचे विष से भरे हुए और ऊपर से दूध भरे घड़े को त्याग दिया जाता है।
माता पिता और गुरु – ये प्रत्यक्ष देवता हैं। इनकी अवहेलना करके अप्रत्यक्ष देवता की विविध उपचारों से आराधना करना कैसे ठीक हो सकता है?
वाल्मीकि
श्री गुरु ग्रन्थ साहिब (4-41-110)
जा कउ तुम भए समरथ अंगा। ता कउ कछु नाही कालंगा ।।
श्री गुरु ग्रन्थ साहिब (4-41-110)
माधउ जा कउ है आस तुमारी । ता कउ कछु नाही संसारी ।।
जा कै हिरदै ठाकुरु होइ । ता कउ सहसा नाही कोइ ॥
जा कउ तुम दीनी प्रभधीर। ता कै निकटि न आवै पीर ।।
कहु नानक मै सो गुरु पाइआ। पारब्रह्म पूरन देखाइआ ।।
हे सर्व शक्तिमान प्रभु! तू जिस मनुष्य का सहायक बनता है, उसे कोई दाग नहीं छू सकता। हे माया के स्वामी प्रभु! जिस मनुष्य को (केवल) तेरी आशा है, उसे दुनिया (के लोगों की सहायता) की आशा नहीं रहती। हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में मालिक प्रभु स्मरण रहता है, उसे (दुनिया का) कोई दुःख दर्द नहीं छू सकता। हे प्रभु! जिस मनुष्य को तूने धैर्य दिया है, कोई दुःख क्लेश उसके निकट नहीं आ सकता। हे नानक! कह- मैंने वह गुरु प्राप्त कर लिया है जिसने मुझे सर्वव्यापक अनन्त प्रभु दिखा दिया है।

श्री सत्य साईं बाबा वचनामृत
समर्पण के बिना स्वतन्त्रता उपलब्ध नहीं हो सकती।
जब तक परमात्मा के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित नहीं होते,‘मैं’ के अहंकार को नहीं छोड़ते तब तक हम चारों तरफ़ के बन्धनों से जकड़े रहेंगे।
इस ‘मैं’ का अहंकार छोड़ कर अपने आप को प्रभु अर्पण करके ही हम मुक्त हो सकते हैं।
‘मैं’ को हम परमात्मा के चरणों में चढ़ा कर ‘मैं’ की जगह ‘तू’ कहना और समझना शुरू कर दें।
‘मैं’ की जगह ‘तू’ को लाते ही दुःखों का बोझ मिट जाता है, छूट जाता है।हमेशा उस निरंजन, निराकार, निर्विकार, अनन्त, महान और दिव्य परमात्मा के साथ रहें, उसके साथ का अनुभव करें और पूरी पूर्णता के साथ करें।
उस अदृश्य और असीम की ध्वनि कानों से सुनने की कोशिश करते रहें।
श्री सत्य साई बाबा के प्रवचन से
धीरे-धीरे इस प्रकार के सतत प्रयास से हम दुःख, शोक और अज्ञान के सभी बन्धनों से मुक्त होकर आनन्द को उपलब्ध हो जाएंगे।